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सरकारी कार्यालय का ऑडिट

सरकारी कार्यालय का ऑडिट
सरकारी कार्यालय का ऑडिट
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बीस दिन पहले चिट्टी पहुँच गई थी। “आपको सूचित किया जाता है कि आपके कार्यालय का आडिट फलां दिनांक से फलां दिनांक तक किया जाएगा” यानि की ‘दामाद जी’ अपने दोस्त के साथ ससुराल आने वाले हैं। “सभी कार्यालयीन दस्तावेज को दुरुस्त कर लें।” अथवा गाड़ी किराये पर ले लें, होटल पर रुकवाने की व्यवस्था देख लें, घुमाने-फ़िराने के लिए प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट चिन्हांकित कर लें आदि।


audit


कार्यालय प्रमुख, इंजीनियर तिवारी साहब के चेहरे पर रेखाओं की उलझन साफ नज़र आ रही थी। मन ही मन सोचा “जब दूसरे के पांव तले अपनी गर्दन दबी हुई हो, तो उन पांव को सहलाने में ही समझदारी है। कुछ खर्चा होगा पर ठीक भी है, अपने कार्यकाल का आॅडिट अपने सामने हो जाएगा।” विचार श्रृंखला टूटी और अपने इंजीनियर गुरु का ज्ञान याद आया “बिजली को बांधना हो तो उसके पैरों में हिना लगा दो।”


बड़े बाबू को बुलवाया गया और सभी आवश्यक निर्देश दिए गए। बड़े बाबू कई आॅडिट निपटा चुके थे। तुरंत खर्चे की मांग की गयी और अपना कट पहले ही अलग कर लिया गया।


आॅडिट टीम के पग शहर की ज़मीन पर पड़ने से पहले ही खातिरदारी शुरू हो चुकी थी। रेलवे स्टेशन पर पूरे लाव लस्‍कर के साथ तिवारी साहब गुलदस्ता लिए तैयार खड़े थे।


“अरे साहब लोगों का सामान उठवाओ। आप इधर मेरे साथ चलिए सर।” तिवारी जी ने पूरे सम्मान से आॅडिटर साहब को लक्ज़री गाड़ी की पहले सीट पर बिठाया। ओवर एक्टिंग और हंसी का एक्स्ट्रा डोज़ इंजीनियर साहब का कुशल प्रबंधन दिख रहा था। और फिर वही औपचारिक सवाल “सफ़र में कोई दिक्कत तो नहीं हुई सर?”


“अरे नहीं तिवारी जी आपके टिकट्स पहले ही मिल गए थे और एसी-2 तो आरामदायक ही रहता है।” इस वाक्य से ऑडिटर साहब ने तिवारी जी के टिकट्स का एहसान तो उतार ही दिया था।


“तो सर आज का क्या कार्यक्रम है? वैसे मैंने वहां व्यवस्था के लिए बोल दिया है। मैनपाट में आजकल बहुत ही खूबसूरत मौसम है। निश्चित ही झरना, पहाड़ और बादल आपके दिल मोह लेंगे और फिर कल अपन तातापानी चलते हैं। प्रकृति की गोद में बेहद ही शांत एवं अनोखा तीर्थस्थल है।“ स्टेशन से होटल जाते हुए कार में समय का पूर्ण उपयोग कर तिवारी जी पूरी कुशलता का परिचय दे रहे थे।


“अरे भाई कुछ फाइल वगैरा भी दिखवाओगे या बस टाइम पास ही करवाओगे। ऑडिट भी तो करना है। बड़े साहब का विशेष निर्देश है। बहुत गड़बड़ी की शिकायत है आपके यहाँ। कहीं निपट न जाओ देखना।” ऑडिटर साहब भी कच्चे खिलाडी नहीं थे, अपनी पोजीशन स्ट्रॉन्‍ग कर रहे थे।


“अब सर आप तो जानते ही हैं। सबको लेकर चलना पड़ता है। कहाँ कौन मंत्री जी से कहकर ट्रान्सफर करवा दे क्या पता? इस उम्र में कहाँ भटकता फिरेगा बेचारा इंजीनियर और फिर ये विभागीय जांच तो कैंसर की बीमारी की सी है, धीरे धीरे आपको खा जाती है।”


“अच्छा अच्छा, चलो ऑफिस पहुंचो साढ़े दस बजे तक, फिर बताते हैं प्रोग्राम।”


ऑडिटर साहब विशेष गाड़ी से होटल से ऑफिस पहुंचे। तिवारी जी ने अपनी कुर्सी उन्हें सौंपते हुए स्वागत किया।


पिस्ता, बादाम, काजू, किशमिश टेबल पर परोसे जा चुके थे। सभी प्लेट्स में से कुछ-कुछ चखते हुए ऑडिटर साहब बोले “तिवारी जी मंगवाइये कार्यालयीन प्रोग्रेस फाइल”


”सर वो बड़े बाबू अभी थोड़ा व्यवस्था में लगे हुए हैं, बाज़ार गए हैं, शायद विदाई गिफ्ट लेने। अब इस छोटे शहर में ज्यादा ब्रांडेड सामान तो मिलते नहीं हैं पर आपको निराश नहीं करेंगे सर। वैसे मैं मंगवा देता हूँ फाइल उनके आते ही।”


“अच्छा तो कैसे चल रहे हैं काम?” पिस्‍ते तेज़ी से ख़त्म हो रहे थे।


”बस सब ठीक है साहब। पहले तो बहुत झोल झाल था इस ऑफिस में। जब से मैं आया हूँ पूरा लाइन में ले आया हूँ। अनाप शनाप खर्चो में तो बिलकुल प्रतिबन्ध लगा दिया है सर।” काजू की प्लेट को छिपाते और हाल ही में इनस्टॉल करवाए गए एसी की तरफ देखते हुए तिवारी जी बोले।


“पिछले साल से तो कोई खास फण्ड भी नहीं मिला है। जैसे तैसे चला रहे हैं सर। बस ये समझिये कि अपनी ज़ेब से लग जाता है कई बार तो।” ये वाक्य धीमी आवाज़ में बोला गया था।


ऑडिटर साहब इसी पल का इंतज़ार कर रहे थे। बोले अपना रटा रटाया डायलाग “सोने की पहचान तो आग में ही होती है। लपटों में अगर उसमें और निखार आए तभी तो वह सच्चा सोना है तिवारी जी।”


तिवारी जी फ़ीकी सी हंसी हंसकर बोले “पर सर चाँद जितनी कोशिश कर ले, दिन को रात तो नहीं बना सकता। आप लोगो के नॉलेज लेवल तक आने में तो हमें अभी बहुत समय लगेगा”


इस जवाब की ऑडिटर साहब को अपेक्षा नहीं थी। “अच्छा-अच्छा ज्यादा बातें न बनाओ, वो क्या कह रहे थे तुम, झरना, पहाड़…”


हाँ सर हाँ, मैनपाट। शम्भू गाड़ी लगा साहब की।


”अरे रुको तो चलते हैं। पिछले महीने का अकाउंट और फण्ड पोजीशन की जानकारी मंगवाइये। घोर वित्तीय अनियमितता का ज़िक्र है आपकी शिकायत में।”


तिवारी जी की धड़कनें तेज़ हो गयीं। काना कहने से काने को जो दुःख होता है, वो क्या दो आँखों वाले आदमी को हो सकता है। गहरी सांस लेकर संयम के साथ तिवारी जी बोले “वो सर अभी अकाउंट बन रहा है। आप लोग आने वाले हैं सुना, तो सभी कर्मचारी व्यवस्था में लग गए थे, तो थोड़ा लेट हो गया इस बार। वैसे हमारे यहाँ सब पाक साफ है, पूरे कागज़ अप टू डेट और बताया न सर फण्ड तो इस साल न के बराबर दिया उच्च कार्यालय ने।”


“कैसे न के बराबर दिया? पूरी रिपोर्ट ले के आयें हैं हम। नौ करोड़ खर्च कर चुके हो चार महीने में।” ऑडिटर साहब ने जताया कि तैयारी उनकी भी पूरी है।


”ऐट प्‍वॉइंट सिक्स-फाइव करोड़, पौने पांच महीने में, टू बी प्रीसाइज़ सर”


”हाँ हाँ वो ही। ये लो, ये इंस्पेक्शन शीट है। शाम को हमारे आने तक इसको भरवा कर रखियेगा। कौन चल रहा है हमारे साथ मैनपाट।”


”सर वो बड़े बाबू को भेज रहा हूँ। मुझे थोड़ा कलेक्टर साहब की मीटिंग में जाना है। आप आइये मज़े से घूमकर सर, शाम को बैठते हैं।”


बड़े बाबू को बुलवाया गया।


ऑडिटर साहब ने झट से पूछा “बड़ी ज़ल्दी आ गए बड़े बाबू मार्किट से”


“जी सर” बड़े बाबू ने कुछ और बोलना उचित न समझा। साहब लोगो के आगे न्यूनतम शब्दों के इस्तेमाल करने की सीख बड़े बाबू को उनके गुरु ने भी दी थी।


अगले दिन भी बमुश्किल कोई रिकॉर्ड देखे गए। नेक्स्ट ऑडिट तक पूरे रिकाॅर्ड्स दुरुस्त करने की हिदायत दी गयी। आगे साहब को अच्छी ऑडिट रिपोर्ट सौंपने का आश्वासन दिया गया।


बाकायदा ऑडिट की कागज़ी खानापूर्ति करते हुए और अगली बार गहन ऑडिट का भरोसा देते हुए एवं अच्छी यादें समेटे हुए ‘दामाद जी’ ने शहर से विदा ली। कार्यालय में तूफ़ान की बाद की खामोश उदासी थी और फिर वही सरकारी कार्यालय का काम काज बदस्तूर जारी रहा।

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